पलामू-मेदिनीनगर जिलें मे शांति और सौहार्द्र के साथ मोहर्रम का त्योहार मनाया गया। जिसमे मुख्य भूमिका पलामू पुलिस कप्तान चंदन कुमार सिन्हा का है उन्होंने जिले के सभी प्रखंडों के थाना प्रभारीयों को अपने दल बल के साथ मोहर्रम जुलूसो में तैनात रहने का निर्देश दिया था। वहीं नीलांबर-पीतांबरपुर प्रखंड अंतर्गत लेस्लीगंज,गोपालगंज,ढे़ला,जुरू,ईटहे,बनुआं एवं हरतुआ पंचायत के हरतुआ गाँव मे भी दो वर्ष के बाद इस बार बड़े धूमधाम के साथ मोहर्रम का त्योहार मनाया गया। जिसमें मोहर्रम कमेटियों के द्वारा हरतुआ पंचायत के मुखिया अरविंद शुक्ला एवं उनके समर्थकों को पगड़ी बोसी कर स्वागत किया गया। वहीं कार्यक्रम को संबोधित करते हुए हरतुआ पंचायत के मुखिया अरविंद शुक्ला ने कहा कि इस्लामिक कैलेंडर के पहले महीने का नाम मुहर्रम है। मुसलमानों के लिए ये सबसे पवित्र महीना होता है,इस महीने से इस्लाम का नया साल शुरू हो जाता है,मोहर्रम माह के दसवें दिन यानी दस तारीख को रोज-ए-आशुरा कहा जाता है। इन दिन को इस्लामिक कैलेंडर में बेहद अहम माना गया है क्योंकि इसी दिन हजरत इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब के छोटे नवासे हजरत इमाम हुसैन ने कर्बला में अपने 72 साथियों के साथ शहादत दी थी। इसलिए इस माह को गम के महीने के तौर पर मनाया जाता है। इमाम हुसैन की शहादत की याद में ही ताजिया और जुलूस निकाले जाते हैं। ताजिया निकालने की परंपरा सिर्फ शिया मुस्लिमों में ही देखी जाती है जबकि सुन्नी समुदाय के लोग तजियादारी नहीं करते हैं।
जानें ताजिया का इतिहास।
मोहर्रम माह के दसवें दिन ताजियादारी की जाती है बताया कि इराक में इमाम हुसैन का रोजा-ए-मुबारक”दरगाह” है जिसकी हुबहू कॉपी (शक्ल) बनाई जाती है,जिसे ताजिया कहा जाता है ताजियादारी की शुरुआत भारत से हुई है। तत्कालीन बादशाह तैमूर लंग ने मुहर्रम के महीने में इमाम हुसैन के रोजे”दरगाह”की तरह से बनवाया और उसे ताजिया का नाम दिया गया। दस मोहर्रम को इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शाहदत की याद में ताजियेदारी की जाती है। शिया उलेमा के मुताबिक मोहर्रम का चांद निकलने की पहली तारीख को ही ताजिया रखने का सिलसिला शुरू हो जाता है,और फिर उन्हें दस मोहर्रम को कर्बला में दफन कर दिया जाता है। ताजिया जुलूस में आपने लोगों को काले कपड़े पहनकर मातम मनाते देखा होगा। इस दौरान लोग करतब दिखाते हुए स्वयं को लहुलूहान कर लेते हैं ताजिया जुलूस में लोगों को ‘या हुसैन,या अल्ला’कहते हुए सुनते होंगे।
क्या है कर्बला की जंग।
आज से लगभग 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी। इस्लाम धर्म के पवित्र मदीना से कुछ दूर ‘शाम’ में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, जिसमें सभी अवगुण मौजूद थे वह शाम की गद्दी पर बैठा। यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और उनका वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव है। यजीद जैसे शख्स को इस्लामी शासक मानने से हजरत मोहम्मद के घराने ने साफ इनकार कर दिया था क्योंकि यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हजरत मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे ताकि वहां अमन कायम रहे। इमाम हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़कर परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे। लेकिन करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। यजीद ने उनके सामने शर्तें रखीं जिन्हें इमाम हुसैन ने मानने से साफ इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के एवज में यजीद ने जंग करने की बात रखी यजीद से बात करने के दौरान इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी के किनारे तम्बू लगाकर ठहर गए। लेकिन यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के तम्बुओं को फुरात नदी के किनारे से हटाने का आदेश दिया और उन्हें नदी से पानी लेने की इजाजत तक नहीं दी। इमाम जंग का इरादा नहीं रखते थे क्योंकि उनके काफिले में केवल 72 लोग शामिल थे जिसमें छह माह का बेटा उनकी बहन-बेटियां पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे शामिल थे। यह तारीख एक मोहरर्म थी और गर्मी का वक्त था गौरतलब हो कि आज भी इराक में मई गर्मियों में दिन के वक्त सामान्य तापमान 50 डिग्री से ज्यादा होता है। सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और खासकर पानी था वह खत्म हो चुका था। इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे सात से दस मुहर्रम तक इमाम हुसैन उनके परिवार के मेंबर और अनुनायी भूखे प्यासे रहे।दस मुहर्रम को इमाम हुसैन की तरफ एक-एक करके गए हुए शख्स ने यजीद की फौज से जंग की जब इमाम हुसैन के सारे साथी मारे जा चुके थे तब असर दोपहर की नमाज के बाद इमाम हुसैन खुद गए और वह भी मारे गए। इस जंग में इमाम हुसैन का एक बेटे जैनुलआबेदीन जिंदा बचे क्योंकि दस मोहर्रम के दिन वो बीमार थे और बाद में उन्हीं से मुहम्मद साहब की पीढ़ी चली।
पलामू न्यूज़ Live
ब्यूरो रिपोर्ट पलामू न्यूज़ Live एस के रवि
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